उगता – डूबता सूरज
सूरज को उगते डूबते देखता लाल
मेरे मन में भी उठते हैं कई सवाल
यह डूबता -उगता कैसे है ?
क्या जन्म- मृत्यु जैसे है ? ।
दिन-रात नित उत्तर ढूंढता हूं
इसी बीच सपनों को बुनता हूं
रुई की तरह अपने आप को धुनता हूं
बिखेर के अपने आपको फिर से चुनता हूं ।
रात की भी निराली है अपनी बात
पूछता है तुम्हारी क्या है औकात ?
इसी प्रश्न पर है जीवन का सारा खेल
निशा- दिवा दोनों का है जीवन में मेल ।
अंधेरों से सब डरते चंद लोग ही बात करते
डूबके अंधेरों के अंतर्तम से वही मोती लाते
अब उनको क्या अंधेरा ? क्या सवेरा ?
समझ गए जग में वो सूरज का फेरा ।
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