Thunth ki tarah

 

 

ठूंठ  की  तरह  खड़े रहे 

 

जिद में  क्यों  अड़े  रहे ?

 

वक्त बदला मौसम बदला 

 

उनमें  ना आया  बदलाव 

 

दरमियां फासले बढ़ते रहे 

 

देखा वे सदा अकड़ते रहे

 

आंधियों में कुछ – कुछ वे

 

टूट -टूट कर गिरते ही रहे

 

उनको तो शानो – शौकत से

 

फुरसत ही नहीं मिला सोचने

 

चकाचौंध में  नजरें हैं धूमिल

 

कौन  यहाँ  पर  है  बुजदिल ?

 

लहराती  फसलों से न सीखा

 

न सीखा हरी भरी डालियों से

 

चार दिवारी में दुनियां बसाया

 

खुदको ना जाने कहाँ गुमाया ?

 

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