नए नए मानकों के लक्ष्य गढ़ते गए
आगे बढ़ते और बिछड़ते गए
पता ही नहीं चला कब से अकेला खड़ा
सोचता हूं आज इतने क्यों बड़े हो गए ?
लीबाज़ों में लिपट गए हम
इतने कैसे सिमटते गए हम ?
कई चेहरों का नकाब गढ़ डाला
खुद को खुद से दूर कर डाला ।
खुद में खुद के कई कब्र खोदे
खुद को बार-बार दफना डाला
अब तो आईना भी सच नहीं बोल पाता
हैरानी इस बात की खुद को कहीं गुमा डाला।
आदि मानव थे तो सब एक थे
सभ्य बनने में कई भेद हो गए
खोजता हूँ, हम कहाँ खो गए
सोचता हूँ , यह लगता भी है
स्वयं के बनाये पिंजरे में कैद हो गए ।
कैसा बुना विकास का ताना-बाना ?
सब मकड़ी के जाला हो गए
खुद के पास खुद की चाबी नहीं
हम सब आज ऐसे ताला हो गए ।
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