संजय और प्रमोद वर्ष 2015 में जब पहली बार रायगढ़ स्टेडियम बैडमिंटन खेलने के चाहत से सुबह पहुंचे तो उन्होंने 55 – 60 वर्ष के एक टीम को एक कोर्ट पर खेलते पाया। इस स्टेडियम में दो कोर्ट हैं – एक आड़ी, दूसरी वाली खडी । वह टीम जहां वो खेल रहे थे स्टेडियम के कोर्ट के पास जाकर उनको देखने लगे । उस समय उनके पास सामान्य जूते थे तथा सामान्य बैडमिंटन था जिसका मूल्य यही कोइ ₹1100 के आसपास उस वक्त रहा होगा दोनों को मिलाकर जब वे उसे खरीदे थे। उनको वे दोनों बड़े ध्यान से देख रहे थे कि यह इतनी उम्र में भी खेल रहे हैं, वह भी बड़े प्यार से शानदार । उन दोनों के खेलने की लालसा को वो समझ गए और खेलने के लिए जायसवाल एवं खैर सर जी ने आमंत्रित किया । वह दोनों एक तरफ खेलें उन दोनों वृद्ध ने उन्हें यूं ही हरा दिया । वह नौसीखिए की तरह खेल रहे थे कूद – कूद के थक जा रहे थे। उस दिन उनको पता चला कि बैडमिंटन का यह खेल ताकत से ज्यादा दिमाग एवं स्फूर्ति का खेल है । इसमें कलाइयों का बड़ा महत्व होता है ।
दूसरे कोर्ट में जो खेल रहे थे वे तेज तर्रार एवं बेहतरीन ढंग से खेलने वाले थे । उनको देखकर उन दोनों के अंदर और जोश बढ़ता । उनको जो टीम आमंत्रित की थी उस टीम में प्रेम कुमार जयसवाल, अनिल खेर एवं जोगा सिंह थे उन्हें उस वक्त एक पार्टनर कि जरुरत थी । जयसवाल जी उन दोनों को अकेले कई मैच हरा देते थे, उस वक्त उनकी उम्र 62 वर्ष एवं दोनों युवाओं की उम्र लगभग 35, 36 रही होगी । वे दोनों हार से कभी मायुस नही हुये बल्कि उसको जीना सिखा । दोनों अपने आपको समझने लगे पहले हार का आनंद लिया और उसको समझा, जाना कि
हम कितना प्वाइंट बना पा रहें हैं ?
कितने से हारे ?
क्यों हारे ?
किस तरह से हार रहे हैं ?
सर्विस देने में गलती कहां हो रही है ?
गलती कैसे की ?
गलती क्योंकि की ?
किस समय में की ?
ऐसे बहुत सारे प्रश्न का हल उन्होंने खोजना शुरू किया ।
जहां चाह है वहां तो राह निकलकर आता ही है भले ही देर से ही सही । इन सारे प्रश्नों के उत्तर जानने मे जायसवाल सर व खैर सर ने बहुत मदद की उनकी । अगर आप श्रध्दा से कुछ भी खोजते हैं तो उसका मिलना तय होने लगता है और वह आपको एक दिन मिल ही जाता है । इस तरह उनके खेल में धीरे-धीरे सुधार होने लगा । वे खेल कर जाने के पश्चात अपनी हार के ऊपर ठहाके लगाकर हंसते, मुस्कुराते की इस तरह की छोटी-छोटी गलतियां हम कर रहे हैं । धीरे-धीरे उनमें सुधार होने के बाद अब वह दोनों आपस में बट गए । अब दोनो तरफ वृद्ध – युवा का कॉन्बिनेशन उन्होंने बनाया । कभी प्रमोद और जायसवाल जी रहते तो कभी संजय और खैर जी साथ में रहते तो कभी जायसवाल जी और संजय साथ में रहते तथा कभी – कभी जोगा जी के साथ दोनों में से कोइ पार्टनर बनते । इस तरह से युवा और वृद्ध का एक टीम बनाकर उन्होंने खेलना प्रारंभ किया और आनंद लेने लगे । वक्त के साथ-साथ उनके खेल में सुधार होते गया ।
फिर दोनों मिलकर जायसवाल एवं खैर जी को टक्कर देने लगे। दोनों सर के द्वारा उन्हें :-
आपने कैसे गलतियां की ?
कहां की ?
उसको कैसे सुधार सकते हैं ?
उसके लिए क्या उपाय करना हैं ?
यह समाधान धीरे-धीरे दिया जाने लगा जिसका अनुप्रयोग वह करते गए । दोनों ने बैडमिंटन जूते एवं रैकेट स्तर का उनके बताए अनुरूप खरीदकर खेलने लगे संजय को सुबह जल्दी उठने में पहले बहुत दिक्कत होती थी । वह सुबह 6:00 बजे से पहले कभी सोकर नहीं उठता था । पर इस खेल ने उसे जल्दी उठना सिखा दिया । अब वह 5:00 बजे 5:30 बजे सुबह उठ जाता है, उसकी नींद खुल जाती है । शरीर व मन को जिसमें आनंद आता है शुकुन मिलता है । वह उस आनंद को पाने के लिए तत्पर रहता है। उस समय वह केलो विहार में रहता था किलो विहार के बाद विनोबानगर चला गया वहां खुशहाल रहने के बाद फिर बैंक कॉलोनी में आ गया यह करीब 2 वर्ष तक चलता रहा फिर किलो विहार की गलियों में वह आ गया स्थाई होने के लिए । इस दौरान जीवन में काफी उथल-पुथल संजय के होने लगे पर खेल जारी रहा क्योंकि जीवन भी एक खेल ही है जिसको खेलने पर ही जीता जा सकता है । जीत किसी को भी तुरंत या आसानी से नहीं मिलती है । इसके लिए कई बार हारना पड़ता है तब उसकी सच्चाई से हम वाकिफ होते हैं । सफलता के लिये असफलता का अनुभव और आनंद दोनों आवश्यक है । बहुत सारे लोग असफलता को समझ नहीं पाने के कारण रास्ता भूल जाते हैं और् सफलता तक नहीं पहुंच पाते।
दूसरे कोर्ट के खिलाड़ी कुछ इधर-उधर होने के कारण वे उस कोर्ट में आ गए पहले वाले कोर्ट अब खाली रहता था। उनके खेलने का समय 6:00 से 7:00 बजे सुबह था । दुसरे कोर्ट पर उस समय एक पिता पुत्र खेलते थे उनके संबंधों के बारे में सबको बहुत देर से पता चला। खेल में खेल के दौरान बिल्कुल पता नहीं चलता था वे बेहतरिन तरिके से खेलते रहे । फिर धीरे-धीरे वे इस कोर्ट में भी उनके साथ खेलने लगे 2 वर्ष बाद उनके पुत्र किसी परीक्षा की तैयारी हेतु बाहर चले गए वह अकेले आते थे और साथ में खेलते । उनके अन्यत्र ट्रांसफर हो जाने के कारण वे भी कहीं चले गए। फिर सबके बीच में एक अधेड़ उम्र का चेहरा लंबा, मुस्कान हमेशा होठों पर खुशमिजाज आदमी आया जोगा सिंह जी के साथ। शुरू – शुरू में उसका खेल संजय व प्रमोद के पहले के खेल जैसे ही लग रहा था पर उसमें आशा का एक अद्भुत संचार था । देखते ही देखते वह बहुत ही कम समय में बहुत अच्छा खेलना सीख गये। उसके सीखने की गति व उसकी हंसी ने सबको प्रभावित किया । सब दुने जोश और दिमाग से खेलने लगे । जहां प्रमोद व संजय खेल में सुधार हो रहा था वही उनके साथी अनिल खेर एवं जोगा जी अब घरेलू जिम्मेदारियों के कारण खेलने नहीं आने लगे । जोगा जी हाइ सुगर व बी. पी. के मरीज थे फिर भी उनके खेल में वह कहीं दिखाई नहीं देता था । इन्सान जब अपने जिजीविषा और जिन्दादिली से खेलता है तो इन बीमारियों की औकात सीमित या समाप्त हो जाती है ।
वे जो अधेड़ उम्र के बहुत ही मजाकिया व्यक्तित्व के साथ खेल रहे हैं, उनका नाम अशोक अग्रवाल है । वह हमेशा अपनी गलतियों पर हंसते दूसरों की गलतियों पर भी आसानी से सहज मुस्कुराते हुए माहौल को हमेशा खुशनुमा बनाते । इस दौरान धीरे-धीरे उम्र का तकाजा जायसवाल सर के खेल में हावी होने लगा, उनसे जब गलतियां होने लगी उसमें उनके हुनर की कमी नहीं बल्की उम्र का प्रभाव रहा है । सबसे गलती होती और अग्रवाल जी हर किसी की गलतियों को हंसी से बखुबी नवाजते रहे । उनकी हंसी किसी में भी भेद नहीं करती की
कौन जानकार है ?
कौन नौसीखिए हैं ?
कौन किस उम्र का है ?
इस माहौल को जायसवाल जी ने कभी – कभी अपनी उपेक्षा की दृष्टि से देखना शुरू किया और वे झल्ला जाते इस हंसी को सुनके पर बाद में मुस्कुराहट से शान्ति की दिशा में ले जाते रहे । इस तरह महीनों तक सिलसिला रोज चलता रहा। घर कि जिम्मेदारियों ने इस बार खेर जी और जोगा जी को घेर लिया वे चाह कर भी अब नहीं आ रहे थे । वही प्रेम कुमार जयसवाल जो सबसे ज्यादा उम्र के खिलाड़ी हैं 70 वर्ष के हो चुके हैं, वह रोज खेलने आते हैं । डॉक्टर ने उन्हें खेलने के लिए बहुत पहले ही मना कर दिया था।
वे कभी-कभी बहुत ज्यादा हाफने लगते है। उनकी सांसें फूल जाती है । सांस लेते समय साएं- साएं की आवाज उनके सीने से आने लगती है। वे खुद कहते हैं आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है, कभी-कभी ऐसा लगता है की अब बस और नहीं सका जायेगा। इतनी उम्र में चश्मा लगाकर वे खेलते हैं बार-बार चश्मा उतार के पोछते हुए खेलते हैं । हिम्मत नहीं हारी है अभी भी । उनका कहना है मैं ऐसे खेलते ही मरना पसन्द है मुझे। बुड्ढों की तरह हिम्मत हार कर हान्फते हुए नहीं। यह बुढ़ापा मेरे इरादों को बूढ़ा नहीं कर सकती है हां वह मेरे शरीर को भले ही बूढ़ा बना जाए पर मुझे नहीं ।
वे अपनी खेलते रहने की जुनून से आज भी उन सबके साथ टक्कर से टक्कर ले कर खेलते हैं । सभी दुसरे खिलाड़ी भी उनके जज्बे को सलाम करते हुए खेल में उनसे कोई रियायत नहीं बरतते ना हमदर्दी क्योंकि वह उनके खेल के प्रति जुनून व इरादे को नीचा दिखाने के समान ही होगा । वह एक सच्चे खिलाड़ी है और खेलना उनका जुनून एवं जीवन है जो हम कभी नहीं भूल सकते हैं । यह हमारे लिये प्रेरणा स्रोत है जो हमे अच्छा खेलने के व जीवन भर खेलते रहने के लिये प्रेरित करता रहेगा। वह हमारे जीवन के आदर्श हैं इस खेल में और सदा रहेंगे भी उनके साथ खेलना एवं सीखना हमारे लिए सम्मान व फक्र की बात है ।
बहुत सारे चेहरे आए गए पर वे दोनों (संजय व प्रमोद) डटे रहे। एक वक्त तो जायसवाल सर भी अब नहीं आएंगे जैसे लगा पर कुछ माह के अंतराल के बाद वह आए । उनके साथ अक्सर संजय व् प्रमोद की जोड़ी बनती। कई गेम जीते व हारे वे। पर अभी कुछ गेम लगातार हारते रहने से संजय ने उनको कहा अब आपको कुछ नया प्रयोग करना चाहिए । इस पर उन्होंने कहा हां मैं भी यही सोच रहा हूं यार। अब स्मैश हमेशा नहीं मार सकता, मारने पर दिक्कत ज्यादा हो रही है। कुछ नया करना होगा । कुछ नेट पर धीमा खेलना होगा। इसके लिये आपको माइंडसेट बदलना होगा नए तरीके से खेलने के लिए। इस तरह नई रणनीति बनी फिर हमने पहले की भांति जीत का रफ्तार पकड़ लिया । वास्तव में जीत और हार एक पड़ाव हैं जो स्थाई नहीं होती। एक क्षण है वह जो रुकता नहीं है । अगर आप मान्सिक रुप से मजबुत हैं तो अपनी हार से बहुत कुछ सीख सकते हैं। मन से अगर आप हार जाते हैं तो आप निश्चित ही हार जायेंगे। अगर आप सीखने के उद्देश्य से खेलते हैं तो आप कभी नहीं हारते हैं हमेशा जीतने लगते हैं। वह जीत एक दिन सबको दिखाई देती है, यह दिखाई देने वाली जीत छोटे- छोटे जीतों का बड़ा रूप है जो एक दिन में नहीं बनता है।
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