अंधियारी रात है स्तब्ध
मन आकुल -व्याकुल
पसीने से लतफथ
कई विचारों ने घेर डाला
चांद क्यों जल्दी नहीं आता ?
घड़ी बजाए जा रहा समय
मन में हो रहा विस्मय
समय का खेल ऐसा
कब आएगा सुबह का अवसर ?
चलता दिन- रात का चौसर ।
लगता है काम करूं झट- झट
पर क्या मोल लिया यह झंझट ?
जी करता सब कुछ दूं कहीं झटक
सोचता क्या पड़ी थी ऐसी अटक ?
परंतु तन्हाई और दूभर डरावना है ।
बस एक दिया है
बाकी काली रात की बात
दिये की लौ झपकती
दुःस्वप्न भी आता कभी-कभी
मन में कोई साया बड़ा हो रहा
सारा जगत है सो रहा ।
आत्म ज्योति- अंधेरे में अंतर्द्वंद्
अनवरत चल रहा है सदा
स्थितप्रज्ञ हो सुनु मन की व्यथा
धरुं धर्म धैर्य सत्य प्रेम करूणा
करुं कर्म पुरुषार्थ की लिखूं कथा ।
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