छद्म आधुनिकता की होड़
सब जगह होता तोड़फोड़
क्षीण होता मानवीय मूल्य
जीवन हो रहा वस्तु तुल्य
जीवन का होता अवमूल्यन
दिखाई देता ज्यादा विचलन
नई जीवनशैली का वर्चस्व
बेलगाम दौड़ते मन के अश्व
उपभोक्तावाद, बाजारवाद
जग के हैं सारे फसाद
उत्पादन बढ़ाने पर जोर
गुमनामी की बढ़ती शोर
भोग की आकांक्षाएं गगनचुंबी
व्यक्ति केंद्रकता में सब घूमती
हो रहा मानव विग्रह
निरापद नहीं रहा कोई
दिग्भ्रमित हो रही जनता
उन्मत्त विस्फारित समाज
है संस्कृति भग्नता की ओर …….
आतंक से आक्रांत घोर………
विवाद बाजारवाद से खड़े
मूल्य हमारे बर्बाद किये
राजनीति में बाजार और
बाजार में राजनीति जड़ दिए
Comment