Naav / नाव

जिंदगी को कसता हुँ जब भी

मुठ्ठी में रेत सा  फिसलती है

हौलें से  पकड़े जो  रखु तो

वो हरदम सहसा सम्हलती है।

 

 

ज्यादा नहीं चलती तनाव की नाव

गर  गलती से जो बैठ गए  उसमें

जल्दी से संभलते  हुए उतर जाव

जीवन का खेल ही है धूप – छांव

 

 

 

Comment

There is no comment on this post. Be the first one.

Leave a comment