मुसाफ़िर हूं यारों फिरता जग
सारा
चला अकेला कहीं साथ
काफिला
दिशाओं का मारा बनके
आवारा
जीत हार का चलता रहा
सिलसिला
कोई न शिकवा न है किसी
से गिला
सोंचा नही कभी क्या खोया
क्या मिला
सब कुछ है मुझको हरदम
गवारा
मुसाफ़िर हूं..…….
दिन कहीं और रात कहीं और
गुजारा
नही पता कहाँ होगी शाम मेरा
सवेरा
पूछा जिसने क्या हो तुम वहां
उकेरा
आना है जाना है दुनियां है एक
रैन – बसेरा
देखा कई सूरज को डूबते उगते
शाम – सवेरा
फर्क न पड़ता अब मुझको
उजाला -अंधेरा
जीवन -मृत्यु, दिन -रात का अविरल
फेरा
मुसाफ़िर हूं ………
ना हंसता ना रोता समय ने सबको
घेरा
बहाके सब ले जा रहा तैरो सब समय की
धारा
अट्टालिकाओं के सामने खड़ी
झोपड़ी
भूकंप में भी शान से खड़ा सदा
रहा
गुलाबों के पीछे पूरी दुनियां
भागी
कई कलियां खिल ना पाई
अभागी
मिल ना पाया उनको कोई
सहारा
मुसाफ़िर हूं ………
कौन जीता है यहां और कौन है
हारा
किसने क्या – क्या , किसको
सवांरा
आते देखा अकेला जाते देखा
अकेला
संसार है एक अनुभव का
मेला
समंदर बांटा धरती बांटा और
आसमान
कई मजहबों में बटके खुदसे हैं
अनजान
समंदर में डूबती कश्ती ढूंढे है
किनारा
मुसाफ़िर हूं………
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