मरने की चाह रखता हूँ साथी
कुछ कर गुजरने की कामना
विचलित तनिक भी न होउंगा
मौत से होगा जब भी सामना ।
मरता हूं रोज साल दर साल
इस मरने पर है मुझको नाज
टुटके फिर जुड़ता हु कई दफे
मुश्किलों का जब हो सामना ।
जीते सभी हैं पर सदा नहीं
मरते सभी हैं यह सदा सही
जो जीने का हुनर जानता
दुनियां उसको ही मानता ।
मृत्यु में छुपा है जीवन सार
दोनों हैं एक दूजे के आधार
कर्म से होते हैं दोनों सिंचित
कर्म से न विमुख हूं किंचित ।
जानता हूँ आया हूँ तो जाऊंगा
यत्न से सरिता स्वयं बहाऊंगा
मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूँ
इससे ज्यादा और क्या कहूँ ?
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