मन बड़ा ही चंचल है, गतिमान है, जिस की गति को मापने का शायद ही कोई यंत्र बना हो जो यह बता सके कि इसकी रफ्तार कितनी है। वह कैसे आता जाता है ? मन विचारों का एक प्रत्यय है, वह विचारों से निर्मित एक पुंज है जो व्यवहार को जन्म देता है । विचार भावनाओं की अभिव्यक्ति है । इस तरह हम कह सकते हैं कि मन भावनाओं से निर्मित होता है तर्क से भी निर्मित होता है । मन प्रत्येक प्राणी में होता है यह अटल सत्य है पर गतिमान प्राणियों में यह ज्यादा क्रियाशील है । मानव मन की तो बात ही अलग है इसकी चंचलता के लिए कई उद्धरण साहित्य में मिलते हैं यथा पीपर पात सरिस मन डोला । यह उक्ति मन को चरितार्थ करता है । मन को अगर कोई स्थिर कर सकता है तो वह प्रेम, ज्ञान एवं भावना है, विश्वास है, कर्म है, जो इसको चुंबकत्व की भांति अपनी और आकर्षित करते हैं । वही घृणा, द्वेष, कलह , अहिंसा उसको अविश्वास अस्थिर करते हैं । जब मन में अविश्वास का जन्म होता है तो वह वहां से पंछी की तरह उड़ के चला जाता है ।
किसी व्यक्ति का शरीर से होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना उसका मन से होना है । शरीर तो एक जड़ तत्व है जबकि मन चैतन्य है । इस संसार में दुख का एक बड़ा कारण चैतन्य से प्रेम न करना है । लोग भौतिकता की आंधी में शरीर से प्रेम कर बैठते हैं जो मन के बिना निर्जीव है एक मशीन ही है । शरीर एक मशीन है तो मन उसका संचालक है । संचालक के बिना उस शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है । यद्यपि दोनों अद्वैत मालूम होते हैं पर वह द्वेत हैं, एक दूसरे पर प्रभाव जरूर होता है। पर मन के गतिमान होने पर शरीर उसको आकर्षित सदैव नहीं कर सकती है । मन को किसी जगह बांधा नहीं जा सकता उसे केवल आकर्षित किया जा सकता है । वह स्वयं आसक्त होकर जब स्थिर होता है तो एक दृढता आती है जो संकल्प बनकर किसी महान कार्य में परिणित होती है । मन एक ऊर्जा का रूप है जो ऊर्जा के सिद्धांत की तरह कार्य करती है । आज के वर्तमान परिदृश्य को देखें तो प्रतीत होता है ,संबंधों में मधुरता कम दिखाई देती है, वहीं कुछ लोगों में अत्यंत प्रगाढ़ संबंध दिखाई देते हैं । इसके पीछे बड़ा कारण है शरीर एवं मन को एक समझ बैठने की भूल है। जिन्होंने मनसे अंतर्मन से प्रेम किया उन्होंने सदैव जानने का एक दूसरे को प्रयास किया है । वह सदैव एक दूसरे में कुछ नया पाते हैं और उनके संबंधों में मधुरता बनी रहती है । वही जो शरीर को प्राप्त करने में लगे हैं उस प्रेम में आकर्षण बहुत तीब्रता के साथ आता है तो विकर्षण भी बहुत जल्दी आती है । उनमें जिज्ञासा समाप्त हो जाती हैं वे एक दूसरे को खोजते रहने की प्रक्रिया में शिथिल हो जाते है क्योंकि शरीर स्थूल है और स्थूल को लोग आसानी से जान जाते हैं , समझ जाते हैं । उसके बाद उसमें कुछ नयापन उनमें नहीं मिलता वे सदैव नया नहीं खोज पाते । जो एक विचलन या भटकाव का का मार्ग अख्तियार करता है । लोगों को यह भ्रम होता है कि जो पास है सशरीर वह पास होता है जबकि यह पूर्णतः सत्य नहीं है । वैसे ही जो सशरीर जहां नहीं है जरूरी नहीं है कि वह वहां नहीं है। व्यक्ति दूर कहीं होकर भी दूर कहीं होता है, रहता है , रह सकता है, जाता है, जा सकता है । सार्थकता तो मन के साथ होने की है, मन से होने की है । यह सभी जान नहीं पाते हैं और भ्रम जाल में फंसे मकड़ी की तरह जाल बुनते बुनते उसमे स्वयं उलझ जाते हैं ।
मन तो पतंग की डोर की तरह है जिसको ढील देकर कसावट देने पर वह और ऊंचे आसमान में उड़ता है । मध्यम मार्ग का अनुसरण सही है। ज्यादा ढील उस पतंग को नीचे गिराता है तो वही ज्यादा कसावट उसे चक्कर खाकर गिरने पर मजबूर कर देता है। उसे उस कसावट को तोड़ देता है जिससे वह अंततः विलीन हो जाता है। मन तो प्रेम व विश्वास की ओर सदैव खिंचा चला आता है । प्रेम भी कैसा निस्वार्थ जिसमें वह स्थिर हो जाता है । व्यक्ति कहीं भी हो किसी भी स्थिति में हो वह उसको जरूर दृढ़ता देता है । भोग विलास मन को बहलाते जरूर हैं पर वे उसे स्थिरता नहीं दे सकते । विश्वास जबकि जब भी किसी का किसी पर अटूट होता है तो मन सदैव वहां ही स्थिर होता है। मन के दो घर हैं एक अगाध प्रेम एवं दुसरा अटूट विश्वास । पशु पक्षियों में भी यह प्रेम की तलाश होती है । मानव यदि मैं तो कहूं प्रत्येक जीव अगर अगाध, निस्वार्थ प्रेम एवं अटूट विश्वास के साथ किसी को छूता है तो वहां मन स्थिर हो पूर्णता को पा लेता है और फिर प्रज्ञा चक्षु के उदगार से वहां शांति ही शांति प्रकाश ही प्रकाश होता है । किसी को बांधने की कोशिश ही उनमें दूरियां ले आती हैं क्योंकि प्रेम बंधन नहीं मुक्ति का द्वार है । न जाने क्यों लोग प्रेम को पाने के लिए शरीर की चाह में ज्यादा दिखाई पड़ते हैं। फिर प्रेम में व्यक्ति को क्यों बांधा जाए । उसे क्यों रोका टोका जाए । प्रेम तो एक उड़ान है आसमान की ओर उस असीम ताकि और पूर्णता की ओर जो बंधन से संभव नहीं है, जो शारीरिक प्रेम से संभव नहीं है । यह संभव है तो केवल अंतर्मन के प्रेम से हां अंतर्मन से प्रेम ही सार्थकता है, शाश्वत मूल्यों को प्राप्ति का मार्ग है बाकी भटकाव के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।
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