करती प्रकृति खुद को संतुलन
स्वच्छ होती वायु ,नीलगगन
हरित समृद्ध धारा
नीली नदियां
नीला समंदर
मानव बेबस बैठा घर के अंदर
हंसते मानव पर पेड़ों के बंदर
सोचता मानव खुद को सदा सिकंदर
आज नाचता मानव
प्रकृति बनी मदारी
बदलती है समय की बारी
दुख की घड़ी में खुद को खोजता इंसान
तू कहां है ? कहां है ? ऐ मेरे भगवान
कितनी जिंदगियों को तूने छीना ?
भाता रहा तुझे सदा उन पशमीना
चक्कर इसके ऐसे चलाया
खुद ही खुद के लिए
बैठा बन गया कमीना ।
बुद्धिजीवी बन के तू
सबको भर माता रहा
मकड़ी की भांति
स्वार्थ से जाल बुना
सब सोच समझकर चुना
खुद के जाल में खुद फंसता रहा
फिर भी नासमझ हंसता रहा
ले फिर अब हंस
अपने बनाए स्वार्थ के
आशियाना में ही धस
स्वार्थ को ही तेरे
तेरे लिए हथियार बनाएगी
मति हरके तेरे पहले
तुझको ही मिटाएगी
रे अतिवादी
बुद्धिजीवी
मिथ्याभाषी
भौतिकतावादी
तकनीकों के बाद शाह
कौन सुनेगा तेरी आह ?
कब आएगी समझ ?
अब तू समझ नासमझ
हर बार मेंरा है तुझे समझाना
तेरे पास है सदा बहाना ।
Comment