हर तरफ लोग
यह सबसे बड़ा रोग
सभी वनस्पति- प्राणी
हलाखान, परेशान
इतना नहीं आसान
इस रोग का समाधान
जीवों की संख्या घट रही
जीवन भी सिमट रही
श्रृंखलाएं टूटती
मृत्यु से जूझती
रास्ता कौन भटक रहा ?
सबसे ज्यादा बुद्धिजीवी
खुद को कहता इंसान
पर रोग दिन ब दिन बढ़ रहा
या कोई बड़ा रहा
धर्म के नाम पर
आतंक के काम पर
अस्तित्व के डर से
नस्ल के घर से
रोग फैला रहा
सबसे ज्यादा बुद्धिजीवी
क्या अब इंसान रहा ?
हर तरफ सीमाए खींच
अपने अपनों के बीच
स्वार्थ की शाखों में
आंखों को मिच- मिच
समंदर, अंतरिक्ष पर
अपने कल्पवृक्ष से
साम्राज्य फैला रहा
नए-नए हथियार से
नए-नए वार से
भेड़ों सा लड़ रहा
क्या इंसान आज बढ़ रहा
सब पर विजय पाने
आमादा सब कुछ गवाने
हथकंडे नए नए आजमा रहा
वैमनस्यता का बीज बो
कौन सी फसलें उगा रहा
मानवता उसमें सो गई
या कुछ जगा रहा
क्या सचमुच उसमें
आज भी कुछ बचा रहा
सबसे ज्यादा बुद्धिजीवी
क्या अब इंसान रहा ?
सच की सीढ़ी
चढ़ने में लग गए
पीढ़ी – पीढ़ी
कौन फिर भरमा रहा
मशीनों के बीच
भावनाएं आज सड़ रहा
क्या सच में मानव निखर रहा
या मानवता बिखर रहा
हर तरफ शोर
धुंआ का दौर
इंसान क्या दौड़ा रहा ?
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