Jivan Ras | जीवन रस

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अदृश्य है वह सारा दृश्य उसका 

खुदके  गहराईयों में वह मिलता ।

 

एक जागता है तो दूसरा सोता है

अंदर – बाहर क्या क्या होता है ?

 

दो दिशाओं में भी स्वभावों में भी

जैसे  एक  दिन है  तो दूसरा रात ।

 

साथ विनाश भी है सृजन भी है 

इसी में ही अंतर्मन जीवन भी है ।

 

सब में शुद्ध भी है अशुद्ध भी है 

जगत में स्वयं से ही युद्ध भी है ।

 

प्रक्रिया चलता है  यह अनवरत

दो चक्रों पे चलता है जीवन रथ ।

 

जीवन  जीना है क्या ?  सरल

कहीं है अमृत , कहीं  है गरल ।

 

रोज होता है भीतर समुद्र मंथन 

छोरों पर देव भी हैं असुर भी हैं ।

 

हलाहल अमृत का लिए कलश 

पीये जा रहा हूँ  जीवन का रस ।

 

कर्म से सदा है फलता- फूलता 

जीवन- मृत्यु के झूले में झूलता ।

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