गर तू जमाने से जज करती है मुझको तो चला जा
मगर समझती है तू मेरी फितरत तो फिर आजा
जमाने ने मुझको बनाना चाहा पर उसके पैमाने थे
पर मुझे अपनी फितरत व उसूलों को आजमाने थे
उसने बांधने हमें रश्म – रिवाजों की रस्सी बनाई है
पर दरिया की तरह बहकर हमने रिश्ता निभाईं है
दायरों की बात जब भी आई है तोड़ना चाहा
खुले आसमान में परिंदों सा हरदम उड़ना चाहा
खींच दी हदें इतनी जमीं पर इन ज़मीदारों ने
मार डाला जिसने भी हदों के पार जाना चाहा
हदें तोड़के – तोड़के सरहदों के पार पहुंचा सिकंदर
हमेशा कारनामों के आगे ही मात खाता है मुक़द्दर
हमने भी फ़ितरतों अपना समझा है खूब जमाने में
हरदम मज़ा आया है जमाने में खुदको आजमाने में
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