अपने ही अंदर के दलदल
हां अंदर के ही दलदल ……
दस रहा है तू पल पल
बाहर निकलने की जुगत
मक्खी के गुड़ में गड़ी रहने की तरह
अंधेरे में खुद को जलाया ही नहीं
उजाले की तलाश में निकला
पर्दे में दिखाई देने वाला हर खेल सच्चा कहां ?
सारा खेल तो पर्दे के पीछे में …….
भागमभाग, चकाचौंध में सच कोई देख पाता है क्या ?
समझ पाता है क्या ? जग जीवन का सारा खेल
इंसान खुद से खुद में गुमशुदा
खुद ही खुद में कैद जो बड़ा जेल
बेतरतीब सा खुद को फैलाया
सबको साधा …….
पूरा क्या हुआ है, सब आधा
भागता रहा है , भाग रहा है
क्या पाया तू , क्या सोच रहा है
ठहर सोच क्यों आया
जो पाया है वह बोझिल है क्या ?
अगर वो बोझील है तो फायदा क्या ?
बोझ ढोते रहने का सदैव ……
वास्तविक प्रतिबिंब सदैव उल्टा
वस्तु से छोटा होता है
फिर बड़ा क्या ढूंढ रहा
मृगतृष्णा से रोज जूझ रहा
दायरों में घिरा पड़ा
अपनी कोठरी से बाहर निकल
देख तू संसार सकल
ढूंढ जिंदगी का हल
पेड़ पे यू हीं लगते नहीं फल
कुछ बीज बो कर्म के
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