आम आदमी हूं
सब आदमी को आम समझता हूं
मेरे लिए कोई नहीं खास
सब पर करता विश्वास
एक दौर था ……..
एक पका हुआ आम लक्ष्य था
उसी पर अपना अक्ष था
हम बहुत सारे वह एक
फिर भी मार रहे पत्थर फेक
सारे यत्न – प्रयत्न उसके लिए
कभी न थकने का सिलसिला था
अब मैं आम आदमी हूं
सब आदमी को आम समझता हूं
अब पके आम बहुत सारे
पर मैं अकेला हूं खड़ा
देख सकता हूं कुछ कर नहीं
खोजने आया हूं उस टोली को
पर उनका अब मिलना होता नहीं
वह बगीचा जो सघन था
जहां किलकारी चहचहाहट कौतूहल था
गूंजती अब साए- साए की आवाज
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